भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

शिशिर-पथिक / रामचंद्र शुक्ल

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

(एक पथिक स्वदेश को लौट रहा हैं। उसने थोड़ी ही उम्र में सेना के अफसर, एक मेजर के कहने में आकर अपना देश छोड़ा; घर में किसी से कहा भी नहीं। तब से निरंतर अग्रेंजी सेना के साथ-साथ वह एक देश से दूसरे देश में भ्रमण करता रहा। उसकी नवागत वधू बहुत दिनों तक उसके आसरे में रही; अंत में निराश होकर अपने पिता के घर आकर वह रहने लगी। वहाँ पर उसने अपने वृद्ध पिता की सेवा तथा पथिकों के सत्कार का व्रत लिया। दैवसंयोग से आज स्वयं उसका पति ही पथिक के रूप में उसके सामने आकर उपस्थित हुआ हैं।)

विकल, पीड़ित पीय-पयान ते,
         चहुँ रह्यौ नलिनी-दल घेरि जो,
भुजन भेंटि तिन्हैं अनुराग सों,
         गमन-उद्यत भानु लखात हैं।।1
 
तजि तुरंत चले, मुख फेरि के,
         शिशिर-शीत सशंकित जीव ही,
विहग आरत वैन पुकारते,
         रहि गए, पर ताहि सुनी नहीं।।2
 
तनि गए सित ओस-वितान हूँ,
         अनिल झार बहार धरा परी,
लुकन लोग लगे घर बीच हैं,
         विवर भीतर कीट पतंग से।।3
 
युग भुजा उर बीच समेटि कै,
         लखहु आवत गैयन फेरि के,
कँपत कंबल-बीच अहीर हूँ,
         भरमि भूलि गई सब तान हैं।।4

तम भयंकर कारिख फेरि के,
         प्रकृति दृश्य कियो धुंधलो सबै;
बनि गये अब शीत-प्रताप ते,
         निपट निर्जन घाट अरु बाट हूँ।।5
 
पर चलो यह आवत हैं, लखो,
         विकट कौन हठी हठ ठानि कै?
चुप रहैं, तब लौं जब लौं कोऊ,
         सुजन, पूछनहार मिले नहीं।।6
 
शिथिल गत, महा गति मंद हैं,
         चहुँ निहारत धाम विराम को;
उठत धूम लख्यौ कछु दूर पै,
         करत श्वान जहाँ रव घोर हैं।।7
 
कँपत आइ भयो छिन में खड़ो,
         युग कपाट लगे इक द्वार पै;
सुनि परयौ “तुम कौन!” कह्यौ तबै,
         “पथिक दीन दया इक चाहतो”।।8
 
खुलि गये झट द्वार धड़ाक से,
         धुनि परी मधुरी यह कान में,
“निकसि आइ बसौ यहि गेह में,
         पथिक वेगि सकोच विहाइ कै”।।9
 
पग धरयौ तब भीतर भौन के,
         अतिथि आवन आयसु पाइ के,
कठिन शीत-प्रताप विघातिनी,
         अनल दीर्घ-शिखा जहँ फेंकती।।10
 
चपल दीठि चहूँ दिसि घूमि के,
         पथिक की पहुँची इक कोन में,
वय-पराजित जीवन-जंग में,
         दिन गिनै नर एक परो जहाँ।।11
 
सिर-समीप सुता मन मारि कै,
         पितहिं सेवति सील सनेह सों,
तहँ खड़ी नत गात, कृशांगिनी,
         लसति वारि-विहीन मृणाल सी।।12
 
लखि फिरी दिसि आवनहार की
         विमल आसन इंगित सों दया;
अतिथि बैठि असीस दयो तबै
         “फलवती सिगरी तुव आस हो” ।।13
 
मृदु हँसी, करुणा इक संग ही,
         तरुनि आनन ऊपर धरि के,
कहति “हाय पथी! सुनु बावरे,
         मुरझि बेलि कहूँ फल लावई।।14
 
“गति लखी विधि की जब वाम में,
         जगत के सुख सों मुख मोरि के,
पितु निदेश निबाहन औ सदा,
         अतिथि सेवन को व्रत लै लयो।।15
 
“अब कहो निज नाम चले कहाँ,
         कहहु आवत हौ कित तें, इतै;
विचलि कै चित के किहि वेग सों,
         पग धरयौ पथ तीर अधीर हैं।।16
 
“सलिल आस अमी रस सींचिके,
         सतत राखति जो तन-बेलि हीं,
पथिक! बैठि अरे तुव बाट को,
         युवति जोवति हैं कतहूँ कोऊ।।17
 
“नयन कोऊ निरंतर धावहीं,
         तुमहिं हेरन को पथ बीच में;
श्रवण-बाट कोउ रहते खुले,
         कहुँ, अरे तुव आहट लेन को?।।18
 
“कहुँ कहूँ तोहिं आवत जानि के,
         निकटता तुव प्रेम-प्रदायिनी,
प्रथम पावन हेतुहि होत हैं,
         चरन-लोचन-बीच बदाबदी1।।19
 
“करि दया, भ्रम जो सुख देत हैं,
         सुमन-मंजुल-जाल बिछाइ कै,
कठिन, काल, निरंकुश निर्द्दयो,
         छिनहिं छीनत ताहि निवारि कै”।।20
 
दबि गयो उन बैननि-भार सों,
         पथिक दीन, मलीन, थको भयो;
अचल मूर्ति बन्यौ, पल एक लौं,
         सब क्रिया तन की मन की रुकी।।21
 
बदन पौरुष-हीन विलोकि के,
         नयन नीरन उत्तर दै दयो,
“तव यथार्थ सबै अनुमान हैं,
         अति अलौकिक देवि दयामयी”।।22
 
अचल नैन उठाइ निहारते,
         पथिक को अपनी दिसि देखि के,
इमि लगी कहने फिरि कामिनी,
         अति पवित्र दया-व्रत-धारिणी।।23
“कुशलता न गुनौ यहि में कछू,
         अरु न विस्मय की कछु बात हैं;
दिवस2 खेइ रहे दुख ओर जो,
         गति लखैं गम में उल्टी सबै”।।24
 
 
1. पहले निकट पहुँचने के लिए आँख और पैर के बीच बाजी लगती हैं; अर्थात् आँख के स्थानविशेष पर पहुँचने के पहले ही पैर पड़ जाता हैं जो कि मनुष्य के गिरने का कारण होता हैं। अतएंव यहाँ लटपटाती हुई चाल से अभिप्राय हैं। रा. शु.।

2. जो संसार सागर में अपने दिनों को दु:ख की ओर खे रहे हैं वे मार्ग में दूसरी वस्तुओं को ( जैसा नौका पर चढ़ते चलते समय देख पड़ता हैं) दूसरी ओर (उल्टे) अर्थात् सुख की ओर जाती हुई देखते हैं।

उभय मौन रहे कछु काल लौं;
         पथिक ऊपर दीठि उठाइ कै,
इक उसास भरी गहरी जबै,
         यह कढ़ी मुख ते वचनावली।।25
 
“अवनि-ऊपर देश-विदेश में,
         दिवस घूमते ही सिगरे गये;
मिसिर, काबुल, चीन, हिरात की,
         चरण धूरि रही लिपटाईं हैं”।।26
 
“पर-दशा-दिशि-मानस-योगिनी,
         लखि परी इकली भुव बीच तू।
समुझि पूछँन साँच सुनाव हूँ,
         सुतनु! मो तनु पै जु व्यथा परी”।।27
 
“मन परै दुख की अब वा धरी,
         पलटि जीवन जो जग में दयो,
चतुर “मेजर” मंत्राहिं मानि कै,
         सुख कियो अपनो सपनो सबै”।।28
 
“हित-सनेह-सने मृदु बोल सों,
         जब लियो इन कानन फेरि मैं।
स्वजन और स्वदेश-स्वरूप को,
         करि दयो इन आँखिन ओट हा”!।।29
 
अब परैं सुनि वाक्य यही हमैं,
         'धरहु, मारहु, सीस उतारहू'
दिवस रैन रहैं सिर पै खरी,
         अति कराल छुरी अफगान की”।।30
 
 
® तात्पर्य यह कि जो लोग संसार में दु:ख भोग रहे हैं वे समझते हैं कि उनको छोड़कर और सब लोग सुख पा रहे हैं। यह मनुष्य का स्वभाव हैं। स्त्री का पति विदेश से नहीं फिरा, इससे वह पथिक को समझती हैं कि अपनी प्रिया ही से वह मिलने जा रहा हैं। रा. शु.।
 
चलि रहे यह आस हिये धरे,
         मम वियोगिनि भामिन को अजौं,
अपर-लोक पयान प्रयास ते,
         मम समागम संशय रोकि हैं।।31
 
कहुँ यहीं इक मन्मथ गाँव हैं,
         जहँ घनी बसती विधुवंश की,
तहँ रहे इक विक्रमसिंह जो,
         सुवन तासु यही रनवीर हैं।”।।32
 
कहत ही इन बैनन के तहाँ,
         मचि गयो कछु औरहि रंग ही;
वदन अंचल-बीच छिपावती,
         मुरि परी गिरि भूतल भामिनी।।33
 
असम साहस वृद्ध कियो तबैं,
         उठि धरयो महि में पग खाट तें,
“पुनि कहो” कहि बारहि बार ही,
         पथिक को फिरि फेरि निहारई।।34
 
आशा त्यागी बहु दिनन की नेकु ही में पुरावै,
         लीला ऐसी जगत प्रभु की, भेद को कौन पावै,
देखो, नारी सुकृत-फल को बीच ही माँहि पायो,
         भूलो प्यारो भटकि पथ तें प्रेम के फेरि आयो।।35

('सरस्वती', मार्च 1905)