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शिशिर ऋतु / प्रेम प्रगास / धरनीदास

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चौपाई:-

शिशिर समय को सुनहु विशेषा। जो गति हम निज नयनन देखा॥
करहिं जडावर जग नर नारी। से धनि नाहि धो-आवहि सारी॥
व्यापित शिशिर सकल संसारा। ठार टुसार जहां तंह मारा॥
कंट कठिन तृण हरकि झुराने।...
निपट क्षीण तन कहि नहि जाती। थहराती जिमि पीपर पाती॥

विश्राम:-

पुलकित पंचम गावहीं, जहैं तैंह नर औ नारि।
ज्ञानमती निज कन्त बिनु, जानत जगत उजार॥200॥

अरिल:-

शिशिर केर सन्ताप, सुनो मन भावनो।
कुल कुटुम्ब परिवार, करत समुझावनो॥
अवटन तेल फुलेल, करत किन आगरी।
भइ आरण्यक भेष, गई मति नागरी॥

कुंडलिया:-

शिशिरहिं मलिन धनी मन, सब विपरीत स्वभाव।
शीतमीत नवनीत जनु, वहि तन तपत जनाव॥
वहि तन तपत जनाव, गाव सब लोग वसन्ता।
नख शिर पुलकित नारि, जाहि संग निशिदिन कन्ता॥
करति न जल अस्नान, लावना तेल तनिक शिर।
मलिन वसन तन मलिन, एक प्रियतम धुनि धनि शिर॥

सवैया:-


शिशिर को पीर शरीर चढी, तरुणी धनि काम विथा अकुलानी।
भेख न लागत भवन न भावत, नींद न आवत देह झुरानी॥
भेस भयावन केशन न झारति, वोलति कंठ विमोहित वानी।
सो विलपै कलपै तलफै सखि, जो गति मीन भई विनु पानी॥

सोरठ:-

शिशिर सतावे ताहि, पिय कारण पीयर भई।
विरह वान उर जाहि, धरनी सोई जानिहै॥