शिशिर का सौंदर्य / गीता शर्मा बित्थारिया
सर्दी में
दिनकर भी
ठिठका है देख
रात की भोगी पीड़ा
उसके आंसुओं से
धरा का आंगन है गीला
चुन रहा है बिखरी हुई
ओस की टूटी लड़ियां
सीली सीली मिट्टी से
हर सुबह आता है
यूं ही व्यथा का
साझीदार होकर
सर्दी में
सुनसान रात
ढक लेती है
अपनी स्याह देह
कोहरे की मोटी चादर से
करती है लंबी प्रतीक्षा
सूरज भरता है
उसके लिए स्वर्ण नदी
उतार झीनी चादर
डूबी रात प्रेम नदी में
यूं केसरिया होकर
सर्दी में
पेड़ों ने
उतार दिए हैं
कपड़ों से
सारे पत्ते
ताकि ओढ़ सके
फोहों सी नर्म चादर
जो भेजी है आसमान ने
अपना प्यार लपेट कर
पेड़ खुश है प्यार में
यूं आसमान होकर
सर्दी में
नितान्त अकेले
निर्विकार भाव लिए
बैठें है पहाड़
बाट जोहते
शिशिर की
जब एक परी
श्वेत आंचल ओढ़े
धीमे से उतरेगी वहां
विस्मित है रमता जोगी
यूं आबाद हो कर
सर्दी में
बहता हुआ
निर्झर झरना
ठहर जाता है वहीं
अधर में लटके
करता तपस्या
उस ऋतु दर्शन की
जो उसे मुक्ति देगी
इस स्थिरता से
वो फिर बह निकलेगा
फिर से नदी होकर
सर्दी में
शीतल शिशिर का वात
छिप गया है कोहरे में चाँद
गगन के गाल पर
टिमटिमाते हैं चंद तारावृंद
नीड़ से झाँकता
मूक चिड़ियों का कौतुक
देख तरु की जमीं श्वेत पत्तियाँ
नीलवर्णी शून्य में
सरका धूसर धरा का आँचल
हो रहा है
स्तब्ध व्योम का शीत धरा से
एकाकार आलिंगन
यूं मौन रह कर
सर्दी में
पुलकित गुंजित उपवन
सुरभित शीतल पवन
शीत ऋतु ने स्वागत में
निशब्द रह
चहुंओर बिछा दिये हैं
रंग बिरंगी मखमली कालीन
भ्रमरों ने शोर मचा कर
खोल दिए
ऋतु राज के गोपन भेद
धरा मगन है मधुमास की
यूं मद्दम सी आहट पाकर
जैसे रात के अंधियारा होना जरूरी है
स्वर्णिम दिन के लिए
वर्षा का बरसना जरूरी है
इन्द्र धनुष के लिए
पीड़ा का विस्तार भी आवश्यक है
प्रार्थना के लिए
संवेदनाओं का होना जरूरी है
दुखों के निस्तार के लिए
शिशिर तुम्हारा होना भी जरूरी है
बसन्त ऋतु के लिए