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शिशिर की चाँदनी / विमल राजस्थानी

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एक कवि को छोड़, बोलो तो भला-
कौन झेलेगा नयन पर यह शिशिर की चाँदनी?
दूर, पश्चिम में बिदा होते दिवा-पति की भुजाओं में सिमटती-
सान्ध्या रानी के कपोलों पर अरुणिमा छा रही थी
और इधर
सोलहों शृंगार कर छवि-यामिनी गज-गामिनी-सी-
शशि-प्रिया नभ-केलि-कुंजों में विहँसती आ रही थी
रात में यमुना किनारे ‘ताज’ की सौन्दर्य श्री पर-
टिक गयीं आँखें, ठिठक कर वह ठगी-सी-
देखती रह गयी-इंशान के पावन प्रणय की-
अश्रु-सी उज्ज्वल कहानी; रस-पगी-सी
एक उजली बूँद आँसू की अचानक चूपड़ी ‘स्मृति-चरण’ पर
हो उठी कृत-कृत नन्हीं दूब वे छवि-कण वरण कर
जग उन्हें शबनम कहे या ओस कह ले
किन्तु, वे हैं रात के आँसू रुपहले
चिह्न जो समवेदना के, अर्चना के
शीत कह जिनसे सभी बचते रहे हैं
युग युगों से उन अमर मुक्ता-कणों की-
वंदना में छंद हम रचते रहे हैं
कुन्तलों में गूँथ कर हिम-हास की छवि
एक कवि को छोड़ कर किसकी कला
आज छेड़ेगी विमोहन रागिनी?
एक कवि को छोड़, बोलो तो भला-
कौन झेलेगा नयन पर यह शिशिर की चाँदनी?

-आकाशवाणी, पटना की कवि गोष्ठी में प्रसारित
15.1.1940