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शिशिर की देवी / पृथ्वी: एक प्रेम-कविता / वीरेंद्र गोयल

फूटती हुई मुसकराहट
अपने सम्मोहन में
चली जा रही थी दौड़ती
पीछे-पीछे मंत्रविद्ध-सा
बैठा अकेला
हर एक मोड़ पर, हर चौराहे पर
जैसे राज उधर ही मुड़ जाती थी
भटकता रहा कितनी देर
काल और समय से परे
गुरुत्वाकर्षण-विहीन स्पेस में
लौटा जब
ठहर जाना पड़ा लाल बत्ती पर
गुम हो चुकी थी तब तक मुसकान
काल के प्रवाह में
कोई-कोई ऐसा क्षण
जैसे यादों में जम जाता है
बार-बार वही तसवीर दिखाता है
क्या करूँ?
कैसे मिटाऊँ?
शीशे पर जमी इस धुंध को
जितनी आहें भरता हूँ
उतनी ही और गहराती है।