शिशिर के प्रति / अज्ञेय
मेरे प्राण-सखा हो बस तुम एक, शिशिर!
छायी रहे चतुर्दिक् शीतल छाया,
रोमांचित, ईषत्कम्पित होती रहे क्षीण यह काया;
ऊपर नील गगन में, धवल-धवल, कुछ फटे-फटे से,
अपने ही आन्तरिक क्षोभ से सकुचे, कटे-कटे से,
जीवन में उद्देश्यहीन-सी गति से आगे बढ़ते बादल-
घिरे रहें बादल, पर बरस न पावें-
मेरे भी-मैं रहूँ नियन्त्रित, मूक, यदपि आँखें भर आवें।
अरे ओ मेरे प्राण-सखा, शिशिर!
सूनी-सूनी, खड़ी ठिठुरती, पर्णहीन वृक्षों की पाँत,
सिर पर काली शाखें मानो झुलस गये हों गात;
कहीं न फूल न पत्ते, अंकुर तक भी दीख न पावें,
नहीं सिद्धि के सुखद फलों की स्मृतियाँ हमें चिढ़ावें-
सम-दु:खी ओ विधुर शिशिर!
केवल दूर खड़ी, सकुचाती, कुछ-कुछ डरी हुई-सी,
आगे बढ़ती, फिर-फिर रुक-रुक जाती, सहम गयी-सी,
वह-भावी वसन्त ही आशा-वह, तेरी जीवन-आधार!
सखे! सदा वह दूर रहेगी-निष्कलंक वह आभा,
हम-तुम उस को छू न सकेंगे-हम-तुम, जिनके कर कलुषित हैं
अन्तर्दाह धुएँ से!
चाहते ही हम रह जावेंगे, नहीं कभी पावेंगे!
फिर भी-वैसी ही मेरे प्राणों में रहे अनबुझी आशा,
झिपती चाहे जावे, किन्तु न बुझने पावे!
इन प्राणों में, जो होते ही रहे सदा विफल-प्रयास-
कभी न कुछ भी कर पाये-रोने तक को समझे आयास!
केवल भर रहे अस्फुट आकांक्षाओं से-
भरे रहे, बस! भरे रहे, हा! फूट न पाये।
यह साकांक्ष विफलता ही रहे धुरी उस मैत्री की
जिस पर घूम रहे हैं प्राण, पा कर साथ तुम्हारा-
अरे, समदु:खी, सहभोगी, ओ वंचित प्राण-सखा, शिशिर!
दिल्ली जेल, सितम्बर, 1932