हौ जे हौले-हौले
बही रहलोॅ छेलै उतराहा हवा
पछिया के गलबांही देलेॅ
हेमन्त के जैथैं
हेनोॅ कैन्हें उमताय गेलोॅ छै
खाली फूल-पत्तिये भर नै
लता, गाछ, बिरिछे पर नै
आदमी के देहो पर
दाँत गड़ैतेॅ।
ई कनकन्नोॅ हवा
नदी, झील, पोखर केॅ हेमाल करतेॅ
आखिर की जमैये के राखी देतै
बर्फे रं।
बर्फ केॅ तेॅ छूलोॅ जावेॅ सकेॅ
मतरकि
शिशिर के ई उतराहा हवा के छूलोॅ
पानी केॅ के छूतै
शिशिर की ऐलोॅ छै
नदी, झील, पोखर केॅ
ठण्ड लगी गेलोॅ छै।