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शीतार्द्र / महेन्द्र भटनागर

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उतरी धीमे-धीमे

फिर-फिर ओस रात-भर !

हिम-शीतल सन्नाटा
छाया सुप्त धरा पर,
फूलों - पत्तों नाची
प्रीति-पुतरिका बनकर,
कारीगर कुहरे ने
किया सृजन कनात-घर !

यहाँ-वहाँ जगह-जगह
बिखरे जल-कण हीरे,
घात लगाये फिरते
पवन झकोरे धीरे,
पहरेदार सरीखा
जागा, हर प्रपात, झर !

ख़ूब जमी है महफ़िल
अध्यक्ष बनी रजनी,
प्रिय को कस कर बाँधे
जागी-सोयी सजनी,
किसी दिशा में दबका
बैठा, नव प्रभात, डर !