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शीत लहर के पंजे से / सुधांशु उपाध्याय
Kavita Kosh से
शीत लहर के पंजे से
धीरे-धीरे छूट गया
लेकिन रिश्ते के मसले पर
घर थोड़ा-सा टूट गया !
कितनी बाँतें कुहरे का
अँधियारा लील गया
फूलों वाले सम्बोधन में
बो कर कील गया,
आया हाथ पकड़ में लेकिन
फिर से छूट गया !
जाती ठंढ न जाने घर में
क्या-क्या छोड़ गई
मफ़लर को तो बख़्श दिया
पर चादर मोड़ गई,
सच के पीछे बहुत दूर तक
उनका झूठ गया !
बिस्तर के गुल्लक में थोड़े
तपते सिक्के डाले थे
उजली, गरम हथेली ने
सिक्के वही उछाले थे,
मौसम के संग मन भी बदला
गुल्लक फूट गया !
साँस-साँस में हल्का-हल्का
हीटर जलता था
गैस नहीं जलती थी लेकिन
दूध उबलता था,
हाथों को गरमाने वाला
कश्मीरी वह सूट गया !