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शील सतपुड़ा-से / नईम
Kavita Kosh से
शील सतपुड़ा से
मर्यादाएँ विंध्याचल,
अलस्सुबह से मचा रहीं
अंतस में हलचल
अपने कुलगोत्रों में लिखा पठार मालवी,
समय गिरानी का मारा है गा न सकूँगा गीत वायवी;
छोटे-बड़े नदी-नाले धमनियाँ-शिराएँ
ननसालों-ददिहालों में-
है खाटी जंगल।
रिश्ते-नाते अरावली-से, आती है सह्याद्रि राह में,
दूर शिवालिक से ले-दे है, सहज जिं़दगी के प्रवाह में
जंगल-सी बढ़ती आबादी कुतर रही है
शनि की दशा विरुद्ध
और संकट में मंगल।
बारूदी बादल छाए हरियल वादी पर,
साफ दिख रहे धब्बे लगे हुए खादी पर;
ख़तरे में अस्तित्व खै़रियत के हैं रोने
आसमान से अभय
धराओं से है सम्बल।