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शीशा-ए-दिल को जाम होने दो / परमानन्द शर्मा 'शरर'

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शीशा-ए-दिल को जाम होने दो
फ़ैज़ साक़ी का आम होने दो

मुझको यकसाँ है‍ मंदिरो -मस्जिद
मेरा हर जा मुक़ाम होने दो

देखना रंगे-बज़्म क्या होगा
अब्र आने दो शाम होने दो

लाओ साग़र बढ़ाओ पैमाना
जीने का एहतमाम होने दो

दिन कटा ग़म के घूँट पी-पी कर
शब को मरहूने जाम होने दो

आ गया भूल कर वो रिन्दों में
शैख़ से हमकलाम होने दो

ज़िक्र मेरा भी है गर उनके साथ
नाम होता है नाम होने दो

वज़हदारी है इश्क़ को लाज़िम
हुस्न को बेलगाम होने दो

वुस्सअतें कब जुनूँ की पाएगी
अक़्ल को तेज़गाम होने दो

खुल ही जाएँगे वो ज़रा दम लो
पहले साहब ! सलाम होने दो

दौर-जम्हूर है ‘शरर’ इसमें
शायरी शग़ले-आम होने दो