भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

शीशे की किरचें / बुद्धिनाथ मिश्र

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

सड़कों पर शीशे की किरचें हैं

औ' नंगे पाँव हमें चलना है ।

सरकस के बाघ की तरह हमको

लपटों के बीच से निकलना है ।


इतने बादल, नदियाँ, सागर हैं

फिर भी हम हैं रीते के रीते

चूमते हुए छुरी कसाई की

मेमने सरीखे ये दिन बीते


फिर लहूलुहान उम्र पूछेगी

जीवन क्या नींद में टहलना है ?


सूर्य लगे अब डूबा, तब डूबा

औ' ज़मीन लगती है धँसती-सी

भोर : हिंस्र पशुओं की लाल आँखें

सांझ : बेगुनाह जली बस्ती-सी


मेघों से टकराते महलों की

छाँहों में और अभी जलना है ।


मन के सारे रिश्ते पल भर में

बासी क्यों होते अख़बारों-से ?

पूजा के हाथ यहाँ छू जाते

क्यों बिजली के नंगे तारों से ?


जीने के लिए हमें इस उलटी

साँसों के दौर को बदलना है ।


(रचनाकाल : 30.4.1983)