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शीशे के मेरे घर के हैं दीवारे-दर सभी / देवी नांगरानी

शीशे के मेरे घर के हैं दीवारे-दर सभी
कैसे कहूँ के संग नहीं आएँगे कभी

तुम तीर तो चलाओ मगर पहले जान लो
आते नहीं है लौट के, वक्त और जाँ कभी

दामन में अपने तुम मेरे आँसू समेट लो
तुमको भी कहकशां नज़र आ जाएगी तभी

जलने को बाक़ी क्या बचा जिसको बचाऊँ मैं
गर्दिश की आँधी राख उड़ा ले गई सभी

आये हैं, बैठिये तो ज़रा, दम तो लीजिये
ख़िदमत का वक्त़ दीजिये ‘देवी’ को भी कभी