शीशे के मेरे घर के हैं दीवारो-दर सभी
कैसे कहूँ के सँग नहीं आएगा कभी।
क्यों ओट में खड़े हो यूँ, कच्ची दीवार के,
मौका मिला है बचने का हट जाओ तुम अभी।
तुम तीर को चलाने से पहले ये जान लो,
आते नहीं है लौट के, वक्त और जान भी।
गहरे कुएँ में आदमी डूबा अजीब है,
नीचे जमीं के आसमाँ रहता भी है कभी।
दामन में अपने तुम मेरे आँसू समेट लो,
तुमको भी कहकशाँ नजर आ जाएगी कभी।
जलने को बाकी क्या बचा जिसको बचाऊँ मैं,
गर्दिश की आँधी राख उड़ा ले गई अभी।