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शीश पे ढो रही हैं शिलाएँ / शिव ओम अम्बर
Kavita Kosh से
शीश पे ढो रही हैं शिलाएँ,
इन दिनों दुधमुँही गीतिकाएँ।
दीमकों के बिलों पे पड़ी हैं,
आचरण की सभी संहिताएँ।
वर्तनी सीख ली धृष्टता की,
पूर्ण हैं आपकी अर्हताएँ।
हैं उधर दर्पनों की दुकानें,
भद्रजन उस दिशा में न जाएँ।
शब्द को शंख की भूमिका दें,
शब्द को मत मजीरा बनाएँ।
गुनगुनाना हमारी प्रकृति है,
आप कसते रहें शृंखलाएँ।