भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
शुक्र को शिकवा-ए-जफ़ा समझे / 'शोला' अलीगढ़ी
Kavita Kosh से
शुक्र को शिकवा-ए-जफ़ा समझे
क्या कहा मैं ने आप क्या समझे
हम तिरी बात नासेहा समझे
कोई समझै हुए को क्या समझे
मरज़ुल-मौत को शिफ़ा समझे
दर्द को जान की दवा समझे
इस तड़पने को मुद्दआ समझे
दिल-ए-बद-ख़ू तुझे ख़ुदा समझे
कर दिए इक जहाँ के बुत-ए-ख़ुद-बीं
ऐ सिंकदर तुझे ख़ुदा समझे
‘शोला’ कल ही तो मय-कदे में थे
आज तुम किसी को पारसा समझे