भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

शुद्ध पानी ढूँढते हैं / जयशंकर पाठक 'प्रदग्ध'

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

जंगलों को काट हमने, कर लिया निर्माण सारा,
खुद प्रदूषित कर धरा को, शुद्ध पानी ढूँढते हैं।

धार अविरल रोक हमने, बाँध कितने ही बनाए।
और विद्युत के अनूठे, अनगिनत उपक्रम लगाए।
कर प्रकृति का मात्र दोहन, स्वार्थ के सपने सजाए।
हो गए विकसित सहज ही, सभ्यता भूले सनातन,
गाँव से हो दूर, पुरखों की निशानी ढूँढते हैं।

खुद प्रदूषित कर धरा को, शुद्ध पानी ढूँढते हैं।

तप्त धरती, तप्त अम्बर, तप रहा संसार सारा।
सूखतीं नदियाँ निरंतर, खो गया इनका किनारा।
रुग्ण होता नित्य क्षिति तल, हो रहा नित नीर खारा।
भूमिगत जल आज सीमित, सोचना होगा हमें ही-
रोक अविरल धार, नदियों में रवानी ढूँढते हैं।

खुद प्रदूषित कर धरा को, शुद्ध पानी ढूँढते हैं।

ये नहीं कहता, सकल हों बंद अपने कारखाने।
ये नहीं कहता, पड़ेंगे चिह्न पैरों के मिटाने।
प्राण रक्षण हेतु लेकिन, पेड़ तो होंगे लगाने।
किन्तु हम जड़बुद्धि मानव, जानकर अनजान रहते,
और रेगिस्तान में, खेती-किसानी ढूँढते हैं।

खुद प्रदूषित कर धरा को, शुद्ध पानी ढूँढते हैं।