शुभकामना / मनोज कुमार झा
यह पार्क सुन्दर है साँझ के रोओं में दिन की धूल समेटे
सुन्दर है दाने चुग रहे कबूतर
बच्चों की मुट्ठियाँ खुलती सुन्दर, सुन्दर खुलती कबूतर की चोंच
मैं भी सुन्दर लगता होऊँगा घास पर लेटा हुआ
छुपे होंगे चेहरे के चाकू के निशान
आँख की थकान ट्रक पर सटे डीजल
के इश्तिहार में सुन्दरता ढ़ूँढ़ती है
जैसे घिस रहे मन भाग्यफल के
झलफल में ढ़ूँढ़ते हैं सुन्दर क्षण
शुभ है कि फिर भी सुन्दरता इतनी नहीं
सजी कि कोढ़ियों की त्वचा प्लास्टिक
की लगे
वहाँ कई जोड़े बैठे हुए और किसी ने नहीं देखी अभी तक घड़ी
उम्मीद है इनके प्रेम की कथा में नहीं शूर्पणखा के कान
अब वहाँ पक रहे जीवन का उजास है चेहरों को भिगोता
कि हवा लहरी तो सहज हहाए हैं बाँस
उम्मीद कि कोई भी चुंबन किसी की हत्या की सहमति का नहीं ।