भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

शुभ्र चन्द्रिके ! / रामेश्वर काम्बोज ‘हिमांशु’

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

126
शुभ्र चन्द्रिके !
कहाँ छुप गई हो
नीरव हुई धरा
रोता गगन
पूछे तेरा ही पता
आके कुछ तो बता।
127
स्वर्णिम नभ
पूछता नित्य प्रश्न
मिला नहीं उत्तर
पिलाक़े आभा
ले गई स्वर्ण घट
कौन थी स्वयंप्रभा?
128
प्रचण्ड शीत
न करे भयभीत
तरु में फूटे कल्ले
हार न माने
मौसम बदलेगा
हँसेगा वनांचल।
129
तिरते पंछी
नील नभस्सर में
डार की डार फैले
नन्ही नौकाएँ
बँधी ज्यों आपस में
नेह की लम्बी डोर।
130
वन प्रान्तर
वंशी की धुन गूँजी
गा उठी घाटियाँ भी,
प्रतिध्वनित
हुए गिरि शिखर
तरुमाल, निर्झर।
 -0-