भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
शुभ दिन ऐसे भी / कुमार रवींद्र
Kavita Kosh से
शुभ दिन
ऐसे भी होते हैं
दिखा सुबह इक बच्चा
जिसकी आँखें नीली थीं
हँसा -
हँसी में उसकी जैसे
धुनें सुरीली थीं
ऐसे ही सुर तो
साँसों में
कविता बोते हैं
एक चिरइया
गुलमोहर की टहनी पर झूली
पल भर में
काशवी देख उसको रोना भूली
कई बार
कुछ मीठे आँसू
आँखें धोते हैं
बूँद पड़ी बरखा की
कच्चा आँगन महक उठा
उधर घाट पर
पूजा का दीया भी लहक उठा
ऐसे ही शुभ दिन
सागर को
देव बिलोते हैं