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शुभ प्रभात / तुम्हारे लिए, बस / मधुप मोहता
Kavita Kosh से
मैं देखता हूँ अपनी खिड़की से
नीले आसमान के परे,
रक्तहीन सूरज जगाता है, एक पीलिया दिन को।
और रात,
जिस की आग़ोश में मदहोश थे हम
किसी तन्हा कोने में सिमट जाती है।
रेलगाड़ियाँ स्टेशनों पर अधभरे पेट उड़ेलती हैं,
धँसी हुई आँखें बसों में घर से दफ्तर जाती हैं।
पकड़ती है स्कूल का रस्ता, भूख सँभाले भारी बस्ता ,
चमचमाती हुई गाड़ियों में
मख़मली लिबास और
कलफ़ लगे कुरते
लड़खड़ाते हैं क्लब की ओर, आँखें मलते
कितनी ख़ूबसूरत है,
सुबह भारत की।