शुरुआत एक नए युग की / नीता पोरवाल

जब तक
बोलता रहा
'अ'
और मौन हो सुनता रहा
'ब'


तब तक
आसमान बना रहा ठीक अपनी जगह
सूरज भी उगता रहा
हर रोज
ठीक उसी ऊंची इमारत के पीछे से
लय-गति-ताल में बढ़ रहीं थीं नदियाँ
           
पर ज्यों ही
गूंज उठी थी आवाज़
'ब' की
थर्रा उठी थीं इमारतें
बेसुरी बेढब हो गयीं थीं नदियाँ
यहाँ तक कि
पलक झपकते
उलट चुका था सिरे से
'अ' के लिए सब कुछ

और अब समझ चुके थे दोनों
आवाज़ की एक प्रत्यंचा खीचने भर से
गिराई जा सकती थीं किले की अभेद्य दीवारें
और हो सकती है शुरुआत
एक नए युग की

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