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शून्य का खिलाड़ी / पृथ्वी: एक प्रेम-कविता / वीरेंद्र गोयल

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कौन कहता है
चाहा हुआ नहीं होता?
कौन कहता है
जीवन नहीं मिलता?
सबसे प्रबल इच्छा
सबसे पहले जन्म लेगी
हर बार,
बार-बार
चाहे जितनी बार
रहो तैयार
एक से दूसरी,
दूसरी से तीसरी,
तीसरी से चौथी,
बस बदलने के लिए
लौटोगे वहीं
चले थे जहाँ से
ये तुम्हारी मर्जी है
कब तक
रहना चाहते हो यात्रा में?
या निकल जाना चाहते हो
इस खेल से
दर्शक तो फिर भी रहोगे
हाँ, जब चाहो
उठकर जा सकते हो
मैदान से
तालियों की गड़गड़ाहट
शोर, चिल्ल-पों का आकर्षण
उठकर जाने नहीं देता
मुड़-मुड़कर देखता
आगे बढ़ता है
एक सीमा के बाद
खो जाती है सब ध्वनियाँ
सूनापन ले लेता है
जब अपने आगोश में।