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शून्य की ओर कदम बढ़ाते लोगों से / प्रताप नारायण सिंह

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छा रहा कुहरा घना है,
या सघन संवेदना है ?

बुझ रही मुस्कान या स्याही पुती है शाम की?
पुष्प का अवसाद या खंडित लड़ी अभिराम की?

प्रकृति की अभिव्यंजना है ?
रुग्ण कोई कल्पना है ?

स्वत्व का उठकर धुआँ, है दृष्टि-पथ को ढँक रहा।
क्षीण होता नित्य पौरुष सम्मिलन का, थक रहा।

ध्वनित फिर भी वन्दना है,
किस तरह की याचना है?

फूलती नस बाजुओं की, चढ़ रही हैं त्योरियाँ !
श्वास से बहता अनल, हैं आँख में चिंगारियाँ!

रूप यह कैसा बना है !
प्राण लावा में सना है।

ज्ञात है किसको नहीं, जो विष रुधिर में घुल रहा !
कौन सी नव-चेतना है, द्वार जिसका खुल रहा?

किस सृजन की योजना है?
क्या, नहीं कुछ सोचना है ?

वृहद यात्रा का, सहस्त्रों वर्ष की, अवदान क्या?
घाव-चिह्नों का, मनुज-इतिहास के, संज्ञान क्या?

भग्न सारी साधना है।
शून्य पर ही जागना है?