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शून्य की शून्यता / पृथ्वी: एक प्रेम-कविता / वीरेंद्र गोयल

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बोलूँ तो इतना
कि लगे गूँगा हूँ
सुनूँ तो इतना
कि लगे बहरा हूँ
खाऊँ तो इतना
कि लगे हवा पर जिंदा हूँ
देखूँ तो इतना
कि लगे अंधा हूँ
सभी संवेदनाएँ
सभी इंद्रियाँ
लौट जाएँ
जहाँ से आयी हैं
बस शून्य हो
सनसनाता हुआ
बस शून्य हो
भिनभिनाता हुआ।