शून्य को निमंत्रण / मंजरी श्रीवास्तव
शून्य
एक ऐसा शब्द
जिसे सुनना नहीं चाहता कोई भी
पर मैं हूँ एक ऐसी अजीबोग़रीब शख्सियत
जो हर पल देती रहती हूँ
शून्य को निमंत्रण
कड़ाके की सर्दी की उस सुबह में
जब द्घने कुहरे में
हाथ को हाथ नहीं सूझता
मार्निंग वॉक करते समय भी
शून्य को महसूस करती हूँ मैं
मेरे इर्द-गिर्द द्घूमती रहती हैं तुम्हारी आँखें
उस कोहरे के अंधकार को दूर करती
चमकते शून्य-सी
जो रोशन करती हैं मेरी राहें
और
शून्य हर पल बना रहता है मेरा पथ-प्रदर्शक
ब्रेकफास्ट के साथ कॉफी मग में भी होते हैं
एक साथ हजारों छोटे-छोटे शून्य
जिन्हें निमंत्रिात करना तो दूर
जिनका निर्माण भी करती हूँ मैं स्वयं
और रोज गटकती रहती हूँ न जाने कई हजार शून्य
याद भी नहीं अब तो
कि
कितने शून्यों को मैंने अपने भीतर समाहित कर लिया है
और कभी नहीं रुकेगा यह सिलसिला
जब तक है जिन्दगी
जब तक है कॉफी
रोज गटकती रहूँगी अनंत शून्यों को
पहनते ही पोल्का डॉट्स की अपनी टी-शर्ट
या नाइट गाउन
महसूस करती हूँ अनगिनत शून्यों का
रुमानी स्पर्श
अपनी दहकती देह पर
एकदम हल्का होकर
शून्य के आवर्तों में द्घिरकर
रुई के फाहे-सा उड़ने लगता है मेरा शरीर
और मर जाती है उसमें
हजारों शून्यों की पुलक
हजारों पोल्का डॉट्स की सिहरन
महसूस करती हूँ अपने सिहरते बदन पर
अनगिनत शून्यों का चुम्बन
उस पल
चश्मा उतारते ही द्घिर जाती हूँ मैं
कई काले और रंगहीन शून्यों में
पिफर होने लगते हैं ये स्फटिक की तरह
पारदर्शी, आबदार, शफ्रपफ़ाक
और अनायास द्घेरने लगते हैं मुझे
अपनी सतरंगियों में
अपनी आँखों में इन पारदर्शी, काले और रंगहीन
सतरंगियों को बसाए
इनका अक्स लेकर
वापस पहनकर चश्मा
निकल पड़ती हूँ काम पर
शाम को लौटकर अपने कमरे में आते ही
महसूस करती हूँ शून्य के बीच की अदम्य शांति
उस शान्त शून्य में आते रहते हैं कई विचार
कुछ अच्छे, कुछ बुरे
देख रही हूँ बचपन से
जिस शून्य से इतना दूर भागती है दुनिया
मुझे सबसे शाश्वत लगता है वही शून्य
जिस पर कभी महर्षि विवेकानंद ने तीन दिनों तक
शिकागो सर्वधर्म सम्मेलन में व्याख्यान दिया था
शायद उन्होंने भी महसूस किया होगा मेरी तरह
अपने-आप को शून्य से द्घिरा
जैसे आज उनके इतने वर्षों बाद मैं महसूस करती हूँ
शून्य में ताकते-ताकते
भीड़ में भी पाती हूँ ख़ुद को तन्हा
मग़र सबसे ख़ुश
शून्य को आँखों में बसाए
देखती हूँ-
सपने भी शून्य के ही
जब लग जाती है आँख
और जागती हूँ अगली सुबह
एक बहुत बड़े शून्य के आवर्त में द्घिरी
जिसे संसार सूरज के नाम से पुकारता है
अच्छा लगता है
हर पल शून्य से द्घिरे रहना
मेरी अपनी एक अलग दुनिया है
जहाँ हूँ मैं
और
सिपर्फ़ मेरा शून्य
नहीं कोई अन्य
शून्य के दायरों में द्घिरी
मैं ख़ुद ही हूँ एक शून्य
शून्य ही आदि
शून्य ही अंत
पर शून्य अनंत
और इन अनंत शून्यों से द्घिरी
अनंत शून्यों के साथ जीती हुई भी
मैं जरूरत से ज्यादा जीवंत।