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शून्य क्षितिज / मल्लिका मुखर्जी
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क्षितिज के लालित्य ने 
हमेशा लुभाया है मुझे ।
सागर-तट पर खड़ी रही 
या पर्वत के शिखर से देखा, 
आँखें बिछ-बिछ जाती थी 
धरती और आकाश के 
शाश्वत प्रेम का नज़ारा देखकर !
उगते सूरज की अरुणिमा के साथ 
कतारबद्ध उड़ते पंछियों का समूह,
ढलते सूरज की लालिमा के साथ 
रंग बदलते 
बादलों की अठखेलियाँ, 
सतरंगी इन्द्रधनुष की मुसकान,
सब कुछ कितना अद्भुत,
जीवंत हुआ करता था !
पर –
रंग नहीं भरते अब 
क्षितिज के केनवास पर । 
शून्य क्षितिज से टकराकर
लौट आती है मेरी निगाहें 
कुछ काले धब्बे अपने साथ लेकर ।
पूछती हूँ ख़ुद से मैं
बार-बार प्रश्न यही –
गुज़रते वक्त के साथ 
धुंधलाई है मेरी दृष्टि 
या रिक्त हुआ है मेरा मन ?
	
	