शून्य से शुरू करते हुए / मुकेश प्रत्यूष
शून्य से शुरू करते हुए अपनी यात्रा
फिर से
सोचता हूं-
क्यों लौट गयी थी तुम
अकेली
साथ-साथ दूर तक चलकर
अच्छी तरह याद है मुझे
असमय हुई बारिश के गुजर जाने के बाद
खुले में आकर
तुम्हारी बायीं हथेली पर
तुम्हारी ही दी कलम से हस्ताक्षर किया था मैंने-मुकेश प्रत्यूष
और उसके ठीक नीचे
लिखा था तुमने अपना नाम
ठीक उसी क्षण
सात-सात रंगों में बांटती सूरज की रोशनी को
न जाने कहां से टपक गयी थी-एक बूंद
लिखे हमारे नामों के उपर
साक्षी है : आकाश
साक्षी हैं : धरती और दिशाएं
कि कुछ कहने को खुले थे तुम्हारे होठ
किन्तु रह गये थे कांप कर
भर आयी थीं आंखें
फिर अचानक भींच कर मुठ्ठी, मुडकर भागती चली गयी थी तुम
और विस्मित-सा खड़ा मैं रह गया था
यह तय करता - क्या और क्यों ले गयी बंधी मुठ्ठी में
हमारा नाम
या वह बूंद जो साक्षी था हमारी सहयात्रा का
शून्य से शुरू करते हुए अपनी यात्रा
-फिर से
चाहता हूं : तुम्हे याद नहीं करूं
भूलना चाहता हूं तुम्हें