भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

शून्य होकर / भवानीप्रसाद मिश्र

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

शून्य होकर
बैठ जाता है जैसे
उदास बच्चा

उस दिन उतना अकेला
और असहाय बैठा दिखा
शाम का पहला तारा
काफ़ी देर तक
नहीं आये दूसरे तारे
और जब आये तब भी

ऐसा नहीं लगा
पहले ने उन्हें महसूस किया है
या दूसरों ने पहले को!