शून्य / अर्चना लार्क
वह जीती है कतरा-कतरा
कुछ बचाती है
कुछ छींट देती है बीज की तरह
हाथ जोड़ कहती है
लो उसके अभिनय से सीख ही लिया अभिनय
चिल्लाती है
हक़ीक़त दुनिया अभिनय है
ख़ामोश हो जाती है
अब तो लड़ाई भी ख़ामोशियों से होने लगी है
एक अजीब ही शान्ति है उस तरफ़
बिस्तर की सिलवटों को तह करती
वह जानती है
पिछली कई रातें किसी और बिस्तर पर पड़ी रही हैं ये सिलवटें
वह द्वन्द्व में गुज़रती जवाब ढूँढ़ती है
भोजन के बाद नेपकिन देना नहीं भूलती
चाय में कभी चीनी ज़्यादा तो कभी पानी ज़्यादा
जीवन में मात्रा लगाते-लगाते स्वाद की मात्रा भूलती सी जा रही है वह
बड़े सलीके से सिरहाने पानी रख जाती है
पता है रात में अक्सर उन्हें कुछ सोचकर पसीना आ जाता है
हलक सूख जाता है
उसे आज भी छन छनकर सपने आते हैं
वह सुबकती नहीं हंसती है
पागल नहीं है वह
कोने में रखे गमले को कभी पानी देती है
कभी भूल जाती है सूखने तक
वह माफ़ कर देना चाहती है बड़ी भूलों को
माफ़ नहीं कर पाती है
हर जगह से थक हारकर लौटने के बाद
उसे स्वीकार कर लेती है वह
उसे फ़र्क नहीं पड़ता
कितनी और रातें कितनी और सिलवटें
कितनी और तस्वीरें कितनी और यादें
फ़र्क पड़ता है सिर्फ़ उसे उसकी ख़ामोशी कुरेदे जाने पर
शायद अब वह उसे मनुष्य नहीं शून्य समझती है ।