शून्य / संजय शाण्डिल्य
अंक से पहले
यह एक सुडौल पहरेदार
धूर्तताओं के इस महासमुद्र में
बचाता हुआ पृथ्वी का सच अपने नथने पर
बाद में
भरता हुआ साथी के हृदय में
दसगुनी ताक़त
दूसरों के अस्तित्व से
जो कई गुना होती चली जाती है संख्या
उसे अपने रंग में ढाल लेने की महान् शक्ति से लैस
यह सवार हो जाता है जिसके सिर पर
उसे ला पटकता है शनीचर की तरह
विफलता के सबसे निचले पायदान पर
शून्य एक सन्त भी
गणितीय जीवन में कभी-कभी
कुछ जुड़ने-घटने के प्रति
उदासीन
चित्रकला सीखते छात्र की पहली सिद्धि यह
कि कितनी सफ़ाई से
वह उकेर पाता है शून्य
सुबह के स्वर्णजल में पैठकर
एक पुजारी
जब उचारता है ओम
उसके होंठ शून्य बन जाते हैं
प्रकृति ने नहीं थामा हाथ
तब भी पूर्ण है यह सृष्टि का नियन्ता
अगर तोड़ो वटवृक्ष का बीज
तो उसके अन्तर में जो शून्य है कुछ नहीं का
उसी की आत्मा में होता है कहीं
एक वृक्ष बहुत विशाल
मेरे वे सूर्यपिता
जो बोलते थे
तो कण्ठ से झरता था अमृत
और देखते थे
तो चीज़ें चमचमा उठती थीं नक्षत्रों-सी
आजकल क्यों ताकते हैं शून्य में
एक रात
जब पूरा शून्य हो जाता है चन्द्रमा
तो मिल जाता है
मेरी माँ की शक़्ल से
और यह ख़ास सच है
कि सीधेपन से भरे चेहरे संसार के
अधिकतर गोल हैं
उन्हें ग़ौर से देखो
तो दया आ जाएगी
तुम कहाँ हो नागार्जुन...आर्यभट्ट
नरेन्द्रदत्त कहाँ हो
आओ देखो
कितना फैल गया है शून्य का साम्राज्य
जो दिखता है चारों ओर
उससे भी बड़ा है
नहीं दिखने का सच
खाए-अघाए हुए ईश्वर के पट-पीछे
भूख के अन्धेरों में भटकते
उस ईश्वर के सच की तरह
जिसके सपनों में खनकते हैं शून्य-से
अगिन सिक़्क़े !