शृंगार-उद्दीपन / श्रृंगारहार / सुरेन्द्र झा ‘सुमन’
कुंज - कुंज कलरव पिकक पुंज पुंज अलि गुंज
मंजु मंजरित माधवी मधु मधुऋतुक निकुंज।।1।।
उद्दीपन - लता कृशोदरि पहिरि उर कुसुम हार अविलम्ब
झुकल झपटि झट लपकि तन तरुन तरुक अवलम्ब।।2।।
संयोग - गर्मायल गर्मी घमथु, वर्षथु वर्षा वारि
जाउ़ गउ़थु परबाहि नहि संग रंगिनी नारि।।1।।
अधर-अधर मधु, नासिका श्वास-श्वास मधु गन्धि
अंग-अंग संगत सरुचि दंपति विग्रह-सन्धि।।2।।
जते अवधि यौवनक जल रूप कूप भरि पूर
तरुण पथिक प्यासल अधिक पिबथि तते उर झूर।।3।।
कुसुम चषक भाजन भरित सुरभित मधु रस पान
रस-लपट झुमि अलिनि सङ रमइछ मधुप जवान।।4।।
विरह - गाम गाम अलका बसल विरहिनि गृहिनी कक्ष
वृत्ति हेतु अभिशाप वश बस विदेश युवयक्ष।।1।।
अहिँक छविक छाया सुमुखि, चान कमल नित भावि
कने सुखी मन, पुनि सेहो छीनल पावस आबि।।2।।
घन घमंड नभ घोर गर्जन तर्जन सब सहब
बिजुली जलदक जोड़ मिलन निरखि नहि रहि सकब।।3।।
घन घनसार निहार मनि-हार चंदनो चंद
जत शीतल रसमय विदित तनि बिनु तपत अमंद।।4।।
चंदन जल घसि-घसि अली तपित अंग लगबैछ
ससन शुष्क मलयजक रज अश्रु पंक बनबैछ।।5।।
चातक पिउ-पिउ रटय कत मिटय न कंठ पिआस
हमहु रटिय पिय नाम नित पुरय न कंतक आस।।6।।
विरह-उद्दीपन - पथिक व्यथित पथ लखि सघन मजरल आम ललाम
दृग मौड़ल, पुट नासिका मूनल बुझि परिनाम।।1।।
सजि कानन नव मंजरी रंजित रक्ताशोक
विरहवंत जनकेँ कयल हंत! वसंत सशोक।।2।।
कुल-ललना मधु मास गुनि, मुनि घर, बैसल थीर
मजर सुरभि सुँधि, धुनि पिकक सुनि, भय उठलि अधीर।।3।।
कोकिल कलरव, मधुप धुनि, मजरल आम सुरम्य
सुरभि कुसुम शर कर मदन करथि न ककरा नम्य।।4।।
पवनक प्रेरित नव जलद तानि इन्द्र-धनु हंत
आबि तुलायल कुलिश-उर करइत विरहिनि अंत।।5।।