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शेख ए हरम उस बुत का परस्तार हुआ है / 'रासिख़' अज़ीमाबादी
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शेख ए हरम उस बुत का परस्तार हुआ है
बुत-ख़ाना-नशीं बाँध के ज़ुन्नार हुआ है
हर हर्फ़ पे दो आँसू टपक पड़ते हैं ऐ वाए
ख़त यार को लिखना हमें दुश्वार हुआ है
कोतह न समझ आह-ए-ज़ईफ़ान को ये तीर
सौ बार दिल-ए-अर्श से भी पार हुआ है
ऐ सैद-फ़गन ग़म से तिरे दूरी के मेरा
हर ज़ख़्म-ए-दिल एक दीद-ए-ख़ूँ-बार हुआ है
हस्ती तिरी पर्दा है उठा उे उसे ग़ाफिल
क्यूँ ऐसा हिजाब-ए-रूख़-ए-दिलदार हुआ है
आगे तिरे थी गर्म-ए-सुख़न होने की हसरत
सो भरना दम-ए-सर्द भी दुश्वार हुआ है
कर क़द्र तू ‘रासिख़’ की कि इस तरह का आज़ाद
यूँ दाम में आ तेरे गिरफ़्तार हुआ है