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शेख पीते तो नहीं हैं शराबखाने में / विनय कुमार
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शेख पीते तो नहीं हैं शराबखाने में।
लगे है आजकल रिंदों को मय पिलाने में।
जंग लड़ने के लिए ज़िंदगी ज़रूरी है
लगी है नौकरी दुश्मन के कारखा़ने में।
पड़ा है मुझ पर अलादीन का साया शायद
चिराग़ ढूँढ रहा हूँ कबाड़ख़ाने में।
बुत हुए बे शुमार लोग बुतों की खातिर
कुछ बनाने में हुए और कुछ मिटाने में।
निकल गया हूँ खुदा ओ सनम के झगड़े से
खुदा की रोशनी पायी है सनमखाने में।
इश्क तो चाय है तुलसी की तेरे हाथों की
क्या पता आग का दरिया था किस ज़माने में।
फ़ल्सफ़ा जिसका उसी के लहू से सिंचता है
और मरता है किसी और का बहाने में।
दिल अँगीठी की तरह रात भर सुलगता है
कौन देगा पनाह अपने आशियाने में।
जिनके उठने से उठें लोग उन सवालों को
रखिये माचिस की तरह सोच के सिरहाने में।