भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

शेरपा / अनिल कार्की

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

कहोगे तुम लगा रहता है दुःख
आता है कभी-कभी सुख भी
वज्रयान भी हो सकती है तुम्हारी शाखा
या कि विकट तन्त्री भी
 
शिनाख़्त की जाए अगर सच की
सच किस बात का!
एक पूज्य शेर का?

खैर!
इस इतिहास और मिथक का क्या
विकृत कर दिया है जिसे
तुम्हारे और मेरे सच की तरह

टिक ही कहाँ पाया यह सच
इस एक झूठ के आगे

उन्होंने हिमालय पर लहराए बारी-बारी
झण्डे अपने देशों के !

ओ! तेंजींग नारगे<ref>इतिहास के अनुसार एवरेस्ट के पहले पथ-प्रदर्शक</ref> !
मेरे पुरखे
मेरे भाई!
मैं नहीं जनता लेकिन मेरे चेहरे का कुछ मोहरा
मिलता ही है शेरपाओं से
अगर वह नहीं भी मिलता
तब भी मैं तुम्हारा ही था

किसी भी जगह क्यों न हो तुम
उत्तरी नेपाल
या कि उत्तरपूर्व
एवरेस्ट के दक्षिण में हों चाहे तुम्हारी बस्तियाँ
या कैलाश मानसरोवर यात्रा में
बोझा उठाते हुए
तुम्हारे छिले हुए कंधे
मेरे ही क्यों न हों
 
पाकिस्तान की सबसे ऊँची पहाड़ी
के-टू की बर्फ पर
गले हुए हुंजा भाईयों के पैर
क्यों न हों मेरे ही
बाक्साइट के खिलाफ लड़ रहे उड़ीसा के
नियामगिर वाले डोंगरिया

इजा-माटी के लिए लड़ रहे जो
दुनिया में कहीं भी इसी तरह
सबसे ऊँचे पहाड़ों पर
सबसे बड़े आसमान पर
सबसे बड़े देश में
सबसे बड़े लोकतन्त्र पर भी
हमारे कन्धे चढ़ कर ही
कब्ज़ा करते हैं कुछ लोग

मेरे भाई!
वो हमारे ही दिखाए गए रास्तों से आकर
लूट रहे हैं हमें
जीत रहे हैं
दुनिया के सबसे ऊँचे पहाड़ों को
जबकि आज भी हम
ढो रहे हैं उनके औज़ार
व झण्डे अपनी पीठ पर।

शब्दार्थ
<references/>