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शेष / मनोज कुमार झा

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दरिद्रा तो अब अपनी सिकुड़ गई अकाल दुकाल फूलता पेट
जोड़तोड़िया ग्राहक को देख कान में हँसी फेंकता है परचूनिया
पनियाए बासी भात की खातिर
झलफल भोर तोड़ता था
बबूल की टहनी छुपाता हूँ बच्चों से।
फिर भी जब छूटता है सामने अन्न और खराब नल बेसिन का
तो हथेली की कोई धातु अकबकाती गिड़ाती हथ-धोअन थाली में।
रख आता हूँ
अब यह जो औसतिया भूख अलसाए रोओं वाली
उसकी चोंच से छिटके दाने,
सड़क जहाँ साफ और ओट बिजली के खंभे का।
वो स्त्री तो जानती बचा लेगी सुबह झाड़ू देते वक्त
कहीं खुरेठ न दे कोई अधसोया साँड़
कोइ कव्वा आए कदाचित निराश
किसी दुखी सजनी की आँगन की मिट्टी कोड़
या कोई मैना नवतुरियों को उड़ना सिखाते सिखाते थकी हुई।
बेटी लपेटती मेरे कॉलर पर अपना हरा रिबन
क्यों नहीं रख देते सेव के टुकड़े भी
       उतरेंगे सुग्गे।

जब से आई फ्रिज कुछ भी अतिरिक्त कहाँ!