'गीतों के जादूगर का मैं छंदों से तर्पण करता हूँ ।'
सच बतलाऊँ तुम प्रतिभा के ज्योतिपुत्र थे,छाया क्या थी,
भली-भाँति देखा था मैंने, दिल ही दिल थे, काया क्या थी ।
जहाँ कहीं भी अंतर्मन से, ॠतुओं की सरगम सुनते थे,
ताज़े कोमल शब्दों से तुम रेशम की जाली बुनते थे ।
जन मन जब हुलसित होता था, वह थिरकन भी पढ़ते थे तुम,
साथी थे, मज़दूर-पुत्र थे, झंडा लेकर बढ़ते थे तुम ।
युग की अनुगुंजित पीड़ा ही घोर घन-घटा-सी छाई
प्रिय भाई शैलेन्द्र, तुम्हारी पंक्ति-पंक्ति नभ में लहराई ।
तिकड़म अलग रही मुस्काती, ओह, तुम्हारे पास न आई,
फ़िल्म-जगत की जटिल विषमता, आख़िर तुमको रास न आई ।
ओ जन मन के सजग चितेरे, जब-जब याद तुम्हारी आती,
आँखें हो उठती हैं गीली, फटने-सी लगती है छाती ।