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शोभा-यात्रा / अमरनाथ श्रीवास्तव

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प्रत्यञ्चित भौंहों के आगे
समझौते केवल समझौते ।

         भीतर चुभन सुई की,
         बाहर सन्धि-पत्र पढ़ती मुस्कानें ।
         जिस पर मेरे हस्ताक्षर हैं,
         कैसे हैं ईश्वर ही जाने ।

आँधी से आतंकित चेहरे
गर्दख़ोर रंगीन मुखौटे ।

         जी होता आकाश-कुसुम को,
         एक बार बाँहों में भर लें ।
         जी होता एकान्त क्षणों में
         अपने को सम्बोधित कर लें ।

लेकिन भीड़ भरी गलियाँ हैं
काग़ज़ के फूलों के न्योते ।

         झेल रहा हूँ शोभा-यात्रा
         में चलते हाथी का जीवन ।
         जिसके ऊपर मोती की झालर
         लेकिन अंकुश का शासन ।

अधजल घट से छलक रहे हैं
पीठ चढ़े जो सजे कठौते ।