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शोरगुल के बीच गुम होती आवाजें / विपिन चौधरी
Kavita Kosh से
जब दिन बोलता था
रात
चुपचाप सुना करती थी।
ठीक ठाक था
तब तक
बोलने सुनने का
यह सिलसिला।
फिर हुआ यह
दिन तो बोला ही बोला
रात, सुबह, शाम
सभी ने
बेलगाम
बोलना शुरू कर दिया।
अब ये
सारे के सारे पहर
चकचक करते हैं लगातार,
इनके शोरगुल तले
दब कर रह गया है,
एक सिरे से
दूसरे सिरे का संदेश
पक्षियों की कलरव ध्वनि,
हवाओं की सरसराहट,
बारिश की रिमझिम,
मंत्रों की ऊर्जा।
ध्वनियों की दुर्लभ प्रजातियाँ
अब खतम होने के कगार पर हैं।