भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
शोर-ए-तूफ़ान-ए-हवा है बे-अमाँ सुनते रहो / शम्सुर्रहमान फ़ारूक़ी
Kavita Kosh से
शोर-ए-तूफ़ान-ए-हवा है बे-अमाँ सुनते रहो
बंद कूचों में रवाँ है ख़ून-ए-जाँ सुनते रहो
कान सुन होने लगे हैं अपने गोश-ए-होश से
सुर्ख़ परियों की सदा दामन-कशां सुनते रहो
गर्मी-ए-आवाज़ को शोला बना कर फूल सा
दूर तक हद्द-ए-नज़र तक राएगाँ सुनते रहो
शोरिश-ए-बहार-ए-करम में माही-ए-मिशअल कहाँ
जिस्म-ए-शब में दिन की धड़कन बे-गुमाँ सुनते रहो
गाढ़ी तारीकी में भारी बर्ग-ए-ख़्वाहिश की महक
मिस्ल कौंदे के मकाँ अंदर मकाँ सुनते रहो