शोर के सन्नाटों में आवाज़ के गीत / भवेश दिलशाद
हिन्दी कविता पिछले कुछ दशकों में एक बड़े परिवर्तन की साक्षी रही है और पक्षधर भी। यह परिवर्तन कविता की भाषा, शिल्प, भावभूमि, विचारभूमि एवं अंतर्वस्तु के संयोजन आदि अनेक स्तरों पर दिखायी देता है। एक बड़ा परिवर्तन, जो कविता की अंतर्वस्तु में हम महसूस कर सकते हैं, वह है नवयथार्थवाद की पक्षधरता के कारण कल्पनाशीलता का लोप अथवा भारी कमी। अब कवि कल्पनाशील कम है, यथार्थ चित्रण के माध्यम से सत्योद्घाटक अधिक। इसी कल्पना और यथार्थ के द्वंद्व के बीच श्रद्धेय राही जी का काव्य खड़ा है, जो कहीं विस्मित करता है, कहीं अभिभूत तो कहीं विचारमग्न।
वस्तुतः राही जी की काव्य यात्रा से गुज़रना एक जीवन, विशेषकर एक कवि जीवन और कवि मन को समझने की यात्रा करने जैसा है। राही जी के काव्य के माध्यम से हम समझते हैं कि कवि मन परिवर्तन अथवा प्रगति का हामी होता है। उनका एक गीत है दृ‘मौसम’, जिसकी कुछ पंक्तियां उद्घोष कर रही हैं -
“मौसम तो आता है, तुमको,/कभी पूछकर कब आया है?
...पथ के पर्वत अवरोधों से/तूफानों के कदम रुके कब
किसके रोके रुक पाये हैं/चले मचलकर ज्वार कभी जब
गति में है कल्याण जगत का/यह परिवर्तन है, माया है।“
यह गति और परिवर्तन की अविरल धारा राही जी के इन गीतों में केंद्रीय अंतर्निहित वस्तु है। इसी के इर्द-गिर्द राही जी की अनेक मनोभावनाएं इन गीतों में गूंजती हैं। इस गति और परिवर्तन की दिशाहीन आपाधापी के बीच एक शोर जन्म लेता है। शोर भी ऐसा कि आवाज़ तक दूभर हो जाये। जब ऐसा होता है तो कवि अपने एकाकीपन को महसूसता हुआ इस महाशोर में उपजे सन्नाटों की चीन्हता है। परिवर्तन के गीत गाती इस कृति का मूल तत्व यही महाशोर और सन्नाटा है। महाशोर, महामौन के बीच एक आवाज़ की तलाश में राही जी के गीत संघर्ष कर रहे हैं। मैं, इन गीतों को शोर से उपजे सन्नाटों में आवाज़ के गीत कहना चाहता हूं, जिनकी प्रतिध्वनियां इस संग्रह में बार-बार भिन्न-भिन्न रूपों में हैं। कुछ पंक्तियां उदाहरणार्थ -
“सन्नाटे हैं/महाशोर है ... किसकी यहां कौन सुनता है”
“कुछ तो सुनें/किसी को समझें ... कुछ सोचें, कुछ बोलें बतियाएं”
‘‘कहां गये संवाद मौन के/नयनों की भाषा के दर्पण ...
कलम खड़ी रह गयी ठगी सी/शब्द हो गये कितने बौने?’’
‘‘शब्द गूंगे हैं अधर पर/मौन के ताले जड़े हैं’’
‘‘सिर उठे हैं संशयों के/चीखते कोलाहलों में’’
वास्तव में, यह कोलाहल दृदृश्य मात्र नहीं, अपितु कवि की वेदना और संवेदना की वह भूमि है, जहां से कवि के सृजन का पल्लवन हो रहा है। गीतों की इस विषयवस्तु की पूर्वपीठिका के तौर पर राही जी पिछला गीत संग्रह सौंप चुके हैं दृ‘कांधों लदे तुमुल कोलाहल’ शीर्षक से। मेरी दुष्टि में, कोलाहल के स्वर एवं विभिन्न संस्करण प्रस्तुत संग्रह के गीतों में अधिक हैं, अधिक प्रासंगिक हैं। वर्तमान संदर्भों में, नारों, प्रदर्शनों, विरोधों का शोर है तो दूसरी तरफ, अनीतियों, व्यभिचारों, आडंबरों का। एक ओर, संस्कृति, संस्कारों एवं सभ्यताओं का संदेश शोर बन चुका है तो दूसरी ओर, निरर्थक विकासशीलता एवं अस्वाभाविकता के कारण एक कोलाहल हर ओर व्याप्त है। कहा जा सकता है कि इन सामाजिक, सांस्कृतिक एवं वैश्विक संदर्भों में, मनुष्य के सामने मनुष्यता के लोप का संकट समय की सबसे बड़ी चिंता है, जिसे अदम गौंडवी ने इस तरह व्यक्त किया था-
“माफ़ कीजै सच कहूं तो आज हिंदोस्तान में
कोख ही ज़रख़ेज़ है एहसास बंजर हो गया।“
राही जी यूं व्यक्त करते हैं -
“मर गयीं संवेदनाएं, आदमीयत मर गयी है
और हम नवजागरण के गीत गाये जा रहे हैं”
इन पंक्तियों से कवि सीधे-सीधे नवजागरण एवं नवयथार्थवाद की नारेबाज़ी को शोर करार दे रहा है। इन गीतों का कवि समाज के समानांतर साहित्य की तथाकथित धाराओं के पतन का भी साक्षी है। इस पतनोन्मुखी समय में प्रगतिशीलता का हामी कवि यदा-कदा नैराश्य में डूबता है। इस शोर में दम घुटता सा महसूस करता है। राही जी इस निराशा को कई बार दर्ज करते हैं -
“गाओ गीत सुभाषित लिख दो/दुनिया नहीं बदलने वाली।“
परन्तु, यह निराशा कवि की किन्हीं क्षणों की एक मनोदशा मात्र है। इन पंक्तियों से राही जी को निराशावादी कवि करार दिया जाना उचित नहीं है। यह संकेत है कि कवि इस युग में टूटन का अनुभव करता है। कवि अपने कर्तव्य-बोध का निर्वहन करता हुआ, उष्मा, आशा एवं सृजन का संदेश देता हुआ, इस हताशा को व्यक्त करने से स्वयं को रोक पाता भी नहीं, रोकना चाहता भी नहीं। इस निराशा के बरक़्स इस संग्रह में कम से कम दो गीत दृ“भिन्नता ओढ़े खड़े हैं”, एवं “कुछ सोचें कुछ समझ विचारें”, पाठक को आश्वस्त करते हैं कि कवि की वैश्विक आशावादी दृदृष्टि क्या है और वह मनुष्य में किस प्रकार की सृष्टि का अनुसंधान चाह रहा है।
“वे मुतमइन हैं कि पत्थर पिघल नहीं सकता
मैं बेक़रार हूं आवाज़ में असर के लिए।“
आवाज़ में असर की दुआ के क़ुबूल होने की घड़ी को देखने के लिए बेक़रार इन गीतों का कवि दुनिया के भयावह शोर के प्रति चिंतित है परन्तु, वह अपने भीतर की आवाज़ को सुन पा रहा है। वह अपने आप से संवाद कर पा रहा है, अपनी आत्मा का अनुभव कर पा रहा है। यही इन गीतों की चैतन्यता का कारण भी है और हासिल भी।
राही जी के इन गीतों में ‘स्व’ के प्रति कोई मोह नहीं है। ध्यान से देखें तो इन गीतों में अनेक वस्तुओं की विराट् सत्ता का अनुभव है जैसे महाशोर, महामौन, महाप्रलय, महानाश, महाउदय, महाकल्प, महातम, महानगर आदि। कवि सूक्ष्म अवलोकन कर पा रहा है इसलिए उसे ये सभी सत्ताएं स्थूलाकार दिख पा रही हैं। वह अपने ‘स्व’ का भी सूक्ष्म अवलोकन कर पा रहा है इसलिए अपनी सत्ता को विराट् के समक्ष अकिंचन अनुभव कर रहा है। देखिए -
“तुम कोई ईसा, कोई सुकरात गांधी तो नहीं
एक पिद्दी सी कलम है, भाव इतना खा रहे हो।“
यह अपनी सत्ता के प्रति निर्माेही भाव है जिसे कवि ने कई बार आवाज़ दी है जैसे पूर्ववर्णित पंक्तियां दृ“दुनिया नहीं बदलने वाली” या “३और हम गीत गाये जा रहे हैं”। इन शब्दों में कबीर के अकिंचन संदेश का सार भी है। वैसे, काव्य परंपरा के लिहाज़ से राही जी के गीतों में तुलसी की छाया अधिक है। तुलसी की अनेक काव्योक्तियों को राही जी वर्तमान संदर्भों एवं आज की भाषा में गढ़ने की चेष्टा करते हैं। एक दृदृष्टांत -
“नज़र अपनी, समझ अपनी, हृदय की भावना अपनी
किसी के हेतु पत्थर है, किसी को देवमूरत है।“
राही जी के काव्य में कवि मन की स्वाभाविकता अथवा नैसर्गिकता के दर्शन अभिभूत करते हैं। प्रकृति पर रचे गये अपने गीतों में राही जी भारतीय दर्शन एवं अध्यात्म परंपरा के विचारों को पोसते हैं और कुछ रहस्यों को खोलते हैं। इस संग्रह में श्रृंगार गीतों की संख्या अपेक्षाकृत कम है, सांध्य गीतों की अधिक। आयु के 91 बरस पार की अवस्था में यह स्वाभाविक भी है। इस अवस्था को ‘बचपन का पुनरागमन’ कहा गया है। ऐसे में स्मृतियों की बहुलता इन गीतों में है। सांध्य गीतों में निराशा, हताशा का भाव कम है जबकि सार्थक जीवन जीने का आनंद एवं गुण-दोषों की स्वीकारोक्ति अधिक है। हां, इन गीतों में एक सदी में हुए सामाजिक/पारिवारिक पतन के प्रति क्षोभ एवं चिंता ज़रूर स्पष्ट है। इन गीतों में नास्टैल्जिक टोन बोझिल नहीं है।इन गीतों में युवा पाठकों के लिए उस विश्व का दर्शन है, जिसका कोई दृदृश्य उनकी कल्पना में नहीं है इसलिए नास्टैलजिया इन गीतों को आकर्षक एवं पठनीय बनाता है।
मैं, पहले भी यह उल्लेख कर चुका हूं कि राही जी इसलिए भी प्रणम्य हैं क्योंकि इस अवस्था में भी वह हिंदी गीत कविता में भाषा, प्रतीक, बिम्ब एवं शिल्प प्रयोगों में युवा कवियों की अपेक्षा अधिक नव्यता लाये हैं। यह सब उनका प्रदेय है। उनके गीतों में भाषा के प्रति कोई संकीर्णता नहीं है। अंग्रेज़ी, उर्दू, देशज आदि शब्दों के साथ वह प्रांजल भाषा का भी प्रयोग करते हैं। वास्तव में, वह जीवंत एवं काव्यानुकूल भाषा को तरजीह देते हैं। मिथकीय प्रयोग पूरी सार्थकता के साथ हैं, जो कविता का नये आयाम देते हैं।
मैं ग़ज़ल का शायर हूं, लेकिन गीतकारों की गोद में खेला हूं और युवावस्था तक गीत के सान्निध्य में रहा हूं। कोई दावा नहीं है कि मैं गीत के क्षेत्र में कोई हस्तक्षेप रखता हूं लेकिन राही जी जैसे कवियों के सान्निध्य से गीत को समझने की समझ विकसित करने का लाभ ज़रूर लेता हूं। फिर कहना चाहता हूं कि पिछले कुछ दशकों की हिंदी कविता में राही जी के सृजन के प्रदेय का उचित मूल्यांकन किया जाना चाहिए। हमारे समय के सर्वाधिक महत्वपूर्ण गीत कवियों की प्रथम पंक्ति में राही जी का स्थान है, यह मेरा विचार है। आलोचना अपना धर्म निभाये और व्यक्तिगत संबंधों, पक्षपात एवं स्वयंभू मठाधीशों के चंगुल से बाहर निकलकर राही जी के सृजन का मूल्यांकन केवल साहित्यिक निकष पर करे, इसी अनुरोध के साथ, मेरा विश्वास है कि कोलाहल की इस महात्रासदी में आवाज़ बनते गीतों की राही जी की यह कृति हिंदी कविता प्रेमियों के लिए उपयोगी एवं संग्रहणीय होगी।
- भवेश दिलशाद
‘प्रणाम’, 161-बी, शिक्षक कांग्रेस नगर
बाग मुगलिया, लक्ष्य होम्स के पास
भोपाल - 462043
मो. - 9425007663