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शोर होता है साज़ पर तनहा / विजय किशोर मानव
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शोर होता है साज़ पर तनहा
रो रहे हैं सभी मगर तनहा
छोड़ घर-बार ख़्वाब के पीछे
आदमी फिर गया शहर तनहा
गांव पूरा तबाह होता है
मुस्कराता है एक घर तनहा
हाथ जो साथ जले, सुनते हैं
जला चराग़ रात भर तनहा
याद करके बुलंदियां कल की
ढह रहा रोज़ खंडहर तनहा
कोई ज़िंदा नहीं है बस्ती में
फिर भी रहता है लाशघर तनहा
मुट्ठियों में सवाल बंद किए
भीड़ तय कर रही सफ़र तनहा
हौसले पस्त कर मेरे सय्याद
क्योंकि उड़ते नहीं हैं पर तनहा