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शोला-ए-इश्‍क़ में जो दिल को तपाँ रखते हैं / सय्यद अहमद 'शमीम'

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शोला-ए-इश्‍क़ में जो दिल को तपाँ रखते हैं
अपनी ख़ातिर में कहाँ कौन ओ मकाँ रखते हैं

सर झुकाते हैं उस दर पे कि वो जानता है
हम फ़कीरी में भी अंदाज़-ए-शहाँ रखते हैं

बादबाँ चाक है और बाद-ए-मुख़ालिफ़ मुँह-ज़ोर
हौसला ये है कि कश्‍ती को रवाँ रखते हैं

वहशत-ए-दिल ने हमें चैन से जीने न दिया
चश्‍म गिर्यां कभी जाँ शोला-फ़िशां रखते हैं

उस को फ़ुर्सत नहीं तो हम भी ज़बाँ क्यूँ खोलें
वर्ना सीने में गुल-ए-जख़्म निहाँ रखते हैं

अर्श-ता-फ़र्श फिराया गया कूचा कूचा
अब ख़ुदा जाने मिरी ख़ाक कहाँ रखते हैं

दिल में वो रश्‍क-ए-गुलिस्ताँ लिए फिरते हैं ‘शमीम’
फूल खिलते हैं क़दम आप जहाँ रखते हैं