भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
शोला-ए-इश्क़ में जो दिल को तपाँ रखते हैं / सय्यद अहमद 'शमीम'
Kavita Kosh से
शोला-ए-इश्क़ में जो दिल को तपाँ रखते हैं
अपनी ख़ातिर में कहाँ कौन ओ मकाँ रखते हैं
सर झुकाते हैं उस दर पे कि वो जानता है
हम फ़कीरी में भी अंदाज़-ए-शहाँ रखते हैं
बादबाँ चाक है और बाद-ए-मुख़ालिफ़ मुँह-ज़ोर
हौसला ये है कि कश्ती को रवाँ रखते हैं
वहशत-ए-दिल ने हमें चैन से जीने न दिया
चश्म गिर्यां कभी जाँ शोला-फ़िशां रखते हैं
उस को फ़ुर्सत नहीं तो हम भी ज़बाँ क्यूँ खोलें
वर्ना सीने में गुल-ए-जख़्म निहाँ रखते हैं
अर्श-ता-फ़र्श फिराया गया कूचा कूचा
अब ख़ुदा जाने मिरी ख़ाक कहाँ रखते हैं
दिल में वो रश्क-ए-गुलिस्ताँ लिए फिरते हैं ‘शमीम’
फूल खिलते हैं क़दम आप जहाँ रखते हैं