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शौक़-ए-बुतान-ए-अंजुमन-आरा लिए हुए / 'सुहा' मुजद्ददी

शौक़-ए-बुतान-ए-अंजुमन-आरा लिए हुए
फिरता हूँ हश्र में वही दुनिया लिए हुए

आती है किस दिमाग़ से इक इक निगाह-ए-हुस्न
दिल में हज़ार फ़ितना-ए-बरपा लिए हुए

याद आ रही है उन की वो तजदीद-ए-इल्तिफ़ात
पहलू-ए-सद-नदामत-ए-ईफ़ा लिए हुए

किस की तलाश है कि सर-ए-तूर इस तरह
आए हो मिशअल-ए-रूख़-ए-ज़ेबा लिए हुए

बेबाक हैं कि जान के पहचानते नहीं
मेरी निगाह-ए-रंग-ए-तमन्ना लिए हुए

अब क्या हो कैफ़-इश्‍क़ कि मुद्दत गुज़र गई
उन के लबों से जुरअ-ए-सहबा लिए हुए

फिर उन को छेड़ता हूँ कि अरसा बहुत हुआ
दिल से कुछ इंतिक़ाम-ए-तमन्ना लिए हुए

देखा ख़िराम-नाज़ ‘सुहा’ जा रहे हैं वो
पस्ती को सू-ए-आलम-ए-बाला लिए हुए