श्मशान की खोपड़ी / रामइकबाल सिंह 'राकेश'
(इस कविता का घटनास्थल मेरे ग्राम के निकट का श्मशान-घाट है। घाट के एक ओर श्मशान है। सामने काँटों की झाडियाँ और घने-घने वृक्ष खड़े हैं। चारों ओर निस्तब्धता छाई हुई है। इधर-उधर कुछ हड्डियाँ, मांस-खण्ड, छोटे-बड़े अस्थि-पंजर बिखरे पड़े हैं, जिनसे शृंगाल, कुत्ते और गिद्ध लिपटे हैं। श्मशान के निकट ही एक नरमुण्ड है, जो समाधिस्थ पुजारी की तरह शान्त ह। बगल में तुरत की जलाई हुई एक चिता अपनी आग की लपटों का फन फैलाकर, कंगालों की जठराग्नि-सी, धधक रही है।)
शैशव के उस नन्दन-वन में
स्वर्ग-भवन में
गूँज उठी थी बनकर कोमल गान
गुन-गुन अलियों के गुंजन-से
मलय-पवन-से
या किसलय के शिंजन-से लयमान
लघु जीवन के नश्वर क्षण में
निर्मण तन में
कहाँ मिला था वह बुद्बुद-सा प्यार
किसकी अधर-सुधा से सिंचित
प्रतिपल पुलकित
पाए मृदु कुड्मल-से स्नेह अपार
हे सखि, उस वैभव के गिरिपर
समुद विचर कर
रचती थी जब मधुर-मधुर संसार
नयनों में जादू भर-भर कर
पुलक-पुलक कर
बिखराती थी सौरभ के उद्गार
अर्द्धनिशा के नभ के प्यारे
चाँद-सितारे
पहनाते थे उज्ज्वल मुक्ताहार
प्रेम-रश्मि से अनुरंजित हो
चंचल चित हो
चपल लहरियाँ करती थीं अभिसार
यौवन के उस उच्च शिखर पर
सुख से चढ़ कर
देखा था क्या कभी पतन का स्वप्न
जहाँ सतत तृष्णा के निर्झर
झरते झर-झर
इच्छा के ताण्डव होते हैं नग्न
स्वर्णिल आकांक्षा के रथ पर
जीवन-पथ पर
होता घातों-प्रतिघातांे का युद्ध
आशाओं के चक्र निरामय
विजय-पराजय
घूम रहे वासना-वृत्त पर लुब्ध
काम-बवंडर धैर्य-विटप का
संचित तप का
करता जड़-उच्छेदन जीवन-भंग
क्रोध-द्वेष के बड़नावल जल
प्रतिपल खलभल
ज्वालाओं से नित्य जलाते अंग
मोह-तरिण पर मद-मधु पीकर
तृषित-कृषित नर
पाप-सिन्धु मंे उतारता मुदमान
मदन-अहेरी विषय-वाण से
तान ध्यान से
मानव-मृग-उर बेध रहा अनजान
स्वप्निल सुस्मृति जिस अतीत की
अनुगत गत की
अविरत करती अणु-अणु आभावान
प्रमुदित जिसके नित्य स्मरण से
चिर चिन्तन से
जल-थल, अनिल, अनल, अम्बर गतिवान
ओ अनन्त के एक शिथिल स्वर!
मुक्त क्षितिज पर
देख रहे किस आशा से सोल्लास
स्रस्त-ध्वस्त इस जर्जर घर में
पंजर-शर में
कहाँ लास-उल्लासों के आभास
प्रबल भावनाएँ उमंग की
रूप-रंग की
जीवन की कामना-कुसुम के छन्द
मिलन-विरह की धूप-छाँह वह
चाह-आह वह
कहाँ हुई विस्मृति-कपाट में बन्द
किस वियोग की करुण कथा से
मर्म-व्यथा से
हृदय-शिराओं में छाया अवसाद
किस करुणा का फेनिल सागर
नित निशि-वासर
उफनाता मुख पर उठकर सविषाद
नहीं वासन है विलास की
मोह-पाश की
लिप्सा, तृष्णा, राग द्वेष का ध्यान
अपने बंजर भाग्य-क्षेत्र में
मलिन नेत्र में
एक भावना, एक रागिनी, गान
उजड़े वैभवहीन लोक-सी
क्षीण शोक-सी
मौन यती-सी शून्य भाव में लीन
प्रलय-काल की नष्ट सृष्टि-सी
दीन दृष्टि-सी
करुणा-रस से प्लवित अवस्था दीन
ध्वंस-भ्रंश जंजाल-जाल-सी
अस्थि-माल-सी
एक भयंकर गुप्त पाप-सी त्यक्त
जीण-शीर्ण निर्जन खँडहर-सी
प्रलय-प्रहर-सी
गुणातीत की गति-मति-सी अव्यक्त
इस मशान के नीरव तन में
जहाँ विजन मंे
घूमें श्वान-शृंगाल-गृद्ध-समुदाय
महाशान्ति के मृदु अंचल में
प्रबल अनल में
चिन्ताओं की चिता धधकती हाय!
चिक्कन कच कुंचित बादल-दल
अलस-लक-दल
विम्बाफल-से अरुण अधर अभिराम
मृदु-उर्मिल उरोज, कर-पल्लव
कदलिजंघ नव
इन्द्रधनुष-भू्र, मृग-दृग, चिवुक ललाम
दाड़िम-दशन; इन्दु-मुख झलमल
पद-तल कोमल
मधु में बारे अंग-अंग सुकुमार
महाकाल के गुहा-द्वार में
अंधकार में
लीन हुए सब हाय, स्वप्न-संसार
कितने पी प्याले-घर-प्याले
हो मतवाले
गर्क नशे में द्वैत रज्जु कर क्षीण
कितने लैला के दृग-तारे
पैर पसारे
घुलमिल हो जाते अनन्त में लीन
दो बिछुड़ों का मधुर मिलन है
प्रिय दर्शन है
तपन, जलन, प्रतिबन्धन के पथ बन्द
जीवन दे जीवन-धन पाना
हिल-मिल जाना
वैयक्तिक पार्थक्य मिटा-भ्रम-फन्द
अविचारी अविनीत वर्ग ने
निष्ठुर जग ने
निर्वासित कर दिया तुम्हें अनजान
दुग्ध-मक्षिका-से कर सत्वर
घर से बाहर
फंेक दिया,-देखा कैसा सम्मान
श्वेत, श्याम, रतनार नयन वह
अमिय बयन वह
भभक लपट में राख हुए सब आज
‘मेरा’-‘तेरा’ का बन्धन वह
अपनापन वह
दूर हटा सब सीमाओं के साज
मसृण, मृदुल मुकुलों के शिंजन
त्रिविध समीरण
चटुल लहरियों के नर्त्तन अनमोल
मुग्धा के चंचल दृग-खंजन
रसमय-यौवन
मोती के चुम्बन, आलिंगन, बोल
जगा सकेंगे तुम्हें न ये सब
कर चेतन अब
इस सुप्त वस्था से आँखें खोल
मनो, ज्ञान, आनन्द कोष से
पंच-दोष से
मुक्त,समुद आसीन प्रमा-हिंडोल
जहाँ एक आलोक चिरन्तन
शिव, सुन्दर मन
षड्वर्गों से रहित अमर उद्गार
अणु-अणु मंे सौन्दर्य-सुधा भर
प्रेम-सुधाकर
देता जीवन का मंगल उपहार
विस्मय या रहस्य की रेखा
जीवन-लेखा
अंकित इस उन्नत ललाट पर शून्य
जन्म-निधन का तत्व-विवेचन
अन्तःप्रेक्षण
अथवा दुख की उलझन, सुख का पुण्य
जाने कैसे अस्थि-माल में
रूप-जाल में
फँसा प्राण-पिक पुलकाकुल नादान
नन्दन-वन-घन-विटप-माल से
मुक्त डाल से
उड़ा भूल जीवन की पंचम तान
देश-काल के गुण-बन्धन में
चिर उलझन में
बँधा कीर-मरकट-सा मूढ़ अजान
छूट गया प्रिय-संग गगन का
गन्ध पवन का
मुग्ध अरुण किरणों का स्वर्ण-विहान
आ मेरे मधु-रस-मज्जित मन
यह जग-जीवन
रुक्ष, क्लिष्ट, कटु, पंकिल, करुणागार
अहे, बिताबें इस निर्जन में
बैठ विजन में
आज उतारें विफल हृदय के भार
चिदानन्द के अखिल स्रोत याँ
ओत-प्रोत याँ
रूप, रंग, रस, प्रेम-सुमन की गन्ध
प्राण-मधुप सौरभ-विमुग्ध हो
आज लुब्ध हो
करो मधुर गुंजार पुलक निर्बन्ध
(रचना-काल: अक्तूबर, 1939। ‘विशाल भारत’, दिसम्बर, 1939, में प्रकाशित।)