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श्मशान घाट पर / हरीशचन्द्र पाण्डे
Kavita Kosh से
दूसरे को राख कर
ख़ुद बची हुई है गँठीली लकड़ी
श्मशान सब कुछ राख नहीं कर पाता
जो राख है उसमें भी
ढूँढ़ रहे हैं कुछ जीवन के ज़ेवर
कुछ अधजली लकड़ी के बचपन पर निगाहें गड़ाए हुए हैं
एक गूँगा बची हुई लकड़ी को
अपनी अव्यय आवाज़ के सहारे उठा कन्धे पर लाद लेता है
श्मशान सबको राख नहीं कर पाता
बल्कि कुछ लोग इसे ठण्डी रातों में
लिहाफ़ बना ओढ़ लेते हैं ।