♦ रचनाकार: सूरदास
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पा लागूँ कर जोरी, श्याम मोते खेलौ न होरी॥ टेक
गौएं चरायन को निकली हूँ, सास-ननद की चोरी।
चुनरी मोरी रंग में न बोरो, इतनी अरज सुनो मोरी,
करौ न बहियाँ झकझोरी॥ 1॥
छीन-छपट मोरे हाथ से गागर, जोर ते बहियाँ मरोरी,
दिल धड़कत है सांस चढ़ते है, देह कंपति सब मोरी,
दुख नहिं जात कहौ री॥ 2॥
अबीर गुलाल लपेटि गयौ मुखसे, सारी सुरंग रंग बोरी।
सासु हजारन गारी दइहै, बालम जियत न छोरी,
हृदय आतंक छयौ री॥ 3॥
फाग खेल कै तैनें रे मोहन, कीनी का गति मोरी॥
‘सूरदास’ मोहन छबि लखिकै, अति आनन्द भयौ री,
सदा उर बास करौ री॥ 4॥