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श्रम और सौन्दर्य के नए बिम्ब / अर्पिता राठौर
Kavita Kosh से
मुझे
तलाश थी
श्रम के बिम्बों के
तभी
तुम आ गईं,
धूप से
हल्की साँवली पड़ी
अपनी कलाई से
तुमने उतारी घड़ी।
बिम्बों की तलाश
न जाने कहाँ
विस्मृत हो गई !
नज़र अटकी रह गई
उस गोरेपन पर
जो जमा हुआ था
तुम्हारी कलाई के
उस भाग पर
जिस पर से
रोज़
तुम
यूँ ही
उतारा करती हो घड़ी,
और आगे भी
उतारा करोगी यूँ ही ।
सुनो !
उतारा करोगी न !
रोज़ ?