श्रम का तिरस्कार / महेश चंद्र पुनेठा
भादो की सँक्रान्ति है आज
अपने हाथों बनाई चीज़ों -
टोकरी / हँसिया / कनगड़ा
या फिर गाबा लिए
ल्वार / ब्वाड़ी / ओड़ / पतार
पहुँच रहे हैं गुँसाई राठों के द्वार
ओलक्या डालने
जहाँ आते रहते हैं वे अक्सर
मेहनत-मज़दूरी करने
दरवाज़े के बाहर खड़े हैं देर से
आवाज़ सुनने के
बहुत देर बाद
नज़रों में हिकारत
होठों में बनावटी हँसी
और हाथों में लेकर
त्यार के बचे-खुचे पकवान
या अन्न
या फिर चंद खिरीज
निकलते हैं गुँसाईं राठ
डाल देते हैं
एक दूरी से उनके
फैले हाथों या धोती के फेट में
वे लगा लेते हैं जिसे
अपने माथे से
किसी बहुमूल्य भेंट की तरह
दे जाते हैं ढेर सारी दुआएँ ।
यहीं देखा है यजमान द्वारा अपने घर
बुलाकर दान देते हुए ब्राह्मण-देव को
अमूस / पून्यूँ / हरेला
या अन्य किसी पर्व पर
बैठाया जाता है उसे
घर के भीतर
किसी ऊँचे आसन पर
किए जाते हैं चरण-स्पर्श
लिया जाता है आशीर्वाद
मुट्ठी बंद कर
दिया जाता है दान
हाथ में हाथ धरकर
इस निवेदन के साथ कि
कृपा बनाए रखना, बुरा न मानना