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श्रम का वेद / केदारनाथ अग्रवाल

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चल रही हैं चीटियाँ
लकीर में
एक बिल से दूसरे बिल की ओर
रुकना मुहाल है उन्हें
बीच की यात्रा में
कहीं
बिल से जुड़ी है बिल,
जमीन के जीवन में
न फौज है
न फाटा है
हरेक चींटी ढोए जा रही है आटा
दिन हो या रात
चींटियों की जमात नहीं टूटती
श्रम का वेद
चीटियों ने चलकर लकीर से लिखा है
लकीर से बना देश
श्रम का देश है
ऐसे देश में
न दुःख है
न दरिद्रता।

रचनाकाल: १५-०९-१९७०